1. हिन्दी साहित्येतिहास के विभिन्न कालों के नामकरण
का प्रथम श्रेय जार्ज ग्रियर्सन को है.
2. हिन्दी साहित्येतिहास के आरंभिक काल के नामकरण का
प्रश्न विवादास्पद है. इस काल को विभिन्न इतिहासकारों ने अलग – अलग नामकरण किया है
जो निम्नलिखित इस प्रकार से है:-
हिन्दी साहित्य के
आदि काल का नामकरण :-
1. चारण काल – जॉर्ज ग्रियर्सन
2. प्रारंभिक काल – मिश्र बन्धु
3. वीरगाथा काल – रामरामचंद्र शुक्ल
4. आदि काल – हजारी प्रसाद
5. संधि काल व चारण काल – रामकुमार वर्मा
6. सिद्ध-सामंत काल – राहुल सांकृत्यायन
7. वीर काल – विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
8. प्रारंभिक काल – डॉ. गणपति चन्द्र गुप्त
9. बीज वपन काल – महावीर प्रसाद द्विवेदी
3. आदिकाल में तीन प्रमुख
प्रवृत्तियाँ मिलती हैं – धार्मिकता,
वीरगाथात्मकता व श्रृंगारिकता
4. आदिकाल में तीन प्रमुख
प्रवृत्तियाँ मिलती हैं-
धार्मिकता, वीरगाथात्मकता और श्रृंगारिकता
5. प्रबंधात्मक काव्यकृतियाँ – रासो काव्य, कीर्तिलता, कीर्तिपताका आदि.
6. मुक्तक काव्यकृतियाँ – खुसरो की पहेलियाँ, सिद्धों-नाथों की रचनाएँ, विद्दापति
की पदावली आदि.
7. विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ व कीर्तिपताका’ की रचना
अवहट्ट में और ‘पदावली’ की रचना मैथिली में की.
8. आदिकाल में दो शैलियाँ मिलती हैं डिंगल व पिंगल. डिंगल शैली में कर्कश शब्दावलियों
का प्रयोग होता है. जबकि पिंगल शैली में कर्णप्रिय शबदावालियों की. कर्कश शब्दवाली
के कारण डिंगल शैली अलोकप्रिय होती चली गई. जबकि कर्णप्रिय शब्दावलियों के कारण
पिंगल शैली लोकप्रिय होती चली गई और आगे चलकर इसका ब्रजभाषा में विगलन हो गया.
9. ‘पृथ्वी राज रासो’ कथानक रूढ़ियों का कोश है,
(कथानक रूढ़ि एक प्रकार का प्रतीक जिसके साथ एक पूरी की पूरी कथा जुड़ी हो.
10.
अपभ्रंश
में 15 मात्राओं का एक ‘चुउपई’ में एक मात्रा बढ़ाकर ‘चौपाई’ के रूप में अपनाया
अर्थात चौपाई 16 मात्राओं का छन्द है.
11.
आदिकाल
में ‘आल्हा’ छन्द (31 मात्रा) बहुत प्रचलित था.
यह वीर रस का बड़ा ही लोकप्रिय छन्द था.
12.
दोहा,
रासा, तोमर, नाराच, पद्धति, पंज्झटिका, अरिल्ल आदि छन्दों का प्रयोग आदिकाल में मिलता
है.
13.
चौपाई
के साथ दोहा रखने की पद्धति ‘कड़वक’ कहलाती है. कडवक का प्रयोग आगे चलकर भक्ति काल
में जायसी और तुलसी ने किया
14.
अमीर
खुसरो को ‘हिन्दी-इस्लामी समन्वित संस्कृति का प्रथम प्रतिनिधि’ कहा जाता है.
15.
आदिकालीन
साहित्य के तीन सर्वप्रमुख रूप हैं – सिद्ध साहित्य, नाथसाहित्य एवं रासो साहित्य
16.
सिद्धों
द्वारा जनभाषा में लिखित साहित्य को ‘सिद्ध साहित्य’ कहा जाता है. यह साहित्य
बौद्ध धर्म को वज्रयान शाखा का प्रचार करने हेतु रचा गया.
17.
सिद्धों
की संख्या 84 मानी जाती है. तांत्रिक क्रियाओं में आस्था तथा मंत्र द्वारा सिद्धि
चाहने के कारण इन्हें ‘सिद्ध’ कहा गया. 84 सिद्धों में सरहपा, शबरपा, कन्ह्पा
प्रथम सिद्ध है. इन्हें सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है.
18.
सिद्ध
कवियों की रचनाएँ दो रूपों में मिलती हैं ‘दोहा कोष’ और ‘चर्यापद’. सिद्धाचार्य
द्वरा रचित दोहों का संग्रह ‘दोहा कोष’ के नाम से तथा उनके द्वारा रचित पद ‘चर्या
पद’ के नाम से प्रसिद्ध हैं.
19.
सिद्ध-साहित्य
की भाषा को अपभ्रंश एवं हिन्दी के संधि काल की भाषा का नाम दिया जाता है.
20.
10वीं
सदी में शैव धर्म एक नये रूप में आरंभ हुआ जिसे ‘योगिनी कौल मार्ग’, ‘नाथ पंथ’ या
हठयोग’ कहा गया. इसका उदय बौद्ध-सिद्धों की वाममार्गी भोग-प्रधान योगधारा की
प्रतिक्रिया के रूप में हुआ.
21.
अनुश्रुति
के अनुसार 9 नाथ हैं आदि नाथ (शिव), जलंधर नाथ, मछन्दर नाथ, गोरखनाथ, गैनी नाथ,
निवृति नाथ
22.
आदि.
लेकिन नाथ-साहित्य के प्रवर्तक गोरखनाथ ही थे.
23.
‘रासो’
शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है.
रासो-काव्य को मुख्यतः 3 वर्गों में बाँटा जाता है:-
a. वीर गाथात्मक रासो काव्य – पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, खुमाण रासो,
परमाल रासो, विजयपाल रासो,
b. श्रृंगार परक रासो काव्य – बीसल देव रासो, सन्देश रासक, मुंज रासो
c. धार्मिक व उपदेशमूलक रासो काव्य – उपदेश रसायन रास, चन्दनबाला रास, स्थुलिभाद्र
रास, भरतेश्वर बहुबलि रास, रेवन्तगिरी रास
24.
पृथ्वीराज रसों (चंदबरदाई) :- रासो काव्य
परंपरा का प्रतिनिधि व सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ, आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ,
काव्य रूप – प्रबन्ध, रस – वीर और श्रृंगार, अलंकार- अनुप्रास व यमक (चन्दरबरदाई
के प्रिय), छन्द – विविध छन्द (लगभग 68), गुण – ओज तथा माधुर्य, भाषा – राजस्थानी
मिश्रित ब्रजभाषा, शैली – पिंगल हैं.
25.
परमाल रासो (जगनिक :– मूल
रूप से उपलब्ध नहीं है लेकिन इसका एक अंश उपलब्ध है जिसे ‘आल्हाखंड’ कहा जाता है.
इसका छन्द आल्हा या वीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ.
26.
सन्देश रासक (अब्दुल रहमान) :- एक विरह काव्य है.
रासो
काव्य की सामान्य विशेताएँ :-
i.
ऐतिहासिकताऔर
कल्पना का सम्मिश्रण
ii.
प्रशस्ति
काव्य
iii.
युद्ध व
प्रेम का वर्णन
iv.
वैविध्यपूर्ण
भाषा
v.
डिंगल-पिंगल
शैली का प्रयोग
vi.
छंदों
का बहुमुखी प्रयोग
27.
चंदवरदाई
दिल्ली के चौहान शासक पृथ्वीराज-चौहान के समान्त व राजकवि थे.
28.
अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के
धनी थे. उन्होंने फ़ारसी में ऐतिहासिक-साहित्यिक पुस्तकें लिखी, व्रजभाषा में गीतों
कव्वालियों की रचना की और खड़ी बोली में पहेलियाँ-मुकरियाँ बुझाई.संगीत के क्षेत्र
में उन्हें कव्वाली, तराना गायन शैली एवं सितार वाद्द यंत्र का जन्मदाता माना जाता
है.
29.
विद्यापति बिहार
के दरभंगा जिले के बिसफी गाँव के रहनेवाले थे. उन्हें मिथिला में रचित ‘पदावली’
है. यह मुक्तक काव्य है और इसमें पदों का संकलन है. पूरी पदावली भक्ति व श्रृंगार
की धूपछान्ही है.
30.
आध्यात्मिक
रंग के चश्मे आजकल बहुतसस्ते हो गये हैं. उन्हेंचढ़ाकर जैसे कुछ लोग को ‘गीत
गोविन्द’ (जयदेव) के पदों में आध्यात्मिकता दिखती हैं वैसे ही ‘पदावली’ (विद्दपति)
के पदों में. – यह कथन शुक्ल जी का है.
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