भक्ति आंदोलन क्या है II भक्ति आन्दोलन के संबंध में आचार्य द्वय के मत II भक्ति आन्दोलन के कारण II भक्ति आंदोलन पर निबंध II
भक्ति आंदोलन क्या है II भक्ति आन्दोलन के संबंध में आचार्य द्वय के मत II भक्ति आन्दोलन के कारण II भक्ति आंदोलन पर निबंध II
आचार्य रामचन्द्र :- शुक्ल जी ने भी भक्ति को धर्म का रसात्मक रूप माना है. उन्होंने एक ओर भक्ति आन्दोलन को इस्लामी आक्रमण से पराजित हिन्दू जनता की असहाय एवं निराश मन: स्थिति से जोड़ा. (bhakti andolan upsc)उनके अनुसार “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठा हो जाने से हिन्दू जनता हताश निराश एवं पराजित हो गयी थी. पराजित मनोवृत्तियों में ईश्वर की भक्ति की ओर उन्मुख होना स्वाभाविक था. हिन्दू जनता ने भक्ति भावना के माध्यम से अपनी अध्यात्मिक श्रेष्ठता दिखाकर पराजित मनोवृत्ति का शमन किया. तत्कालीन धार्मिक परिस्थितियों ने भी भक्ति के प्रसार में योगदान दिया. नाथ सिद्धयोगी अपनी रहस्यदर्शी शुष्कवाणी में जनता को (bhakti andolan notes) उपदेश दे रहे थे. भक्ति आदि हृदय के प्रकृति भावों से उसका कोई सामजस्य न था. भक्ति भावना से ओत-प्रोत साहित्य ने इस अभाव (bhakti movement) की पूर्ति की” दूसरी ओर वे भक्ति आन्दोलन को दक्षिण भारत से आया हुआ मानते हैं – “भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण में था. सातवीं शताब्दी में अलवार भक्तों ने भक्ति भावना प्रारंभ की....भक्ति का जो स्रोत दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था राजनितिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय-हृदय में फैलने के लिए पूरा स्थान मिला.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी :
द्विवेदी जी ने भक्ति आन्दोलन (bhakti
aandolan) को जन जागरण कहा वे इसे भारतीय चिन्तन धारा का स्वाभाविक विकास मानते
हैं उनके अनुसार – ‘नाथ-सिद्धों की साधना अवतारवाद लीलावाद
और जातिगत कठोरता दक्षिण भारत से आयी हुई भक्ति धारा में घुल मिल गयी. यह
आन्दोलन और साहित्य लोकोन्मुखता एवं मानवीय करुणा के महान् आदर्श से युक्त है.
......भक्ति भावना पराजित मनोवृत्ति उपज नहीं है और न ही इस्लाम के बलात प्रचार के
परिणाम स्वरूप उत्पन्न हुई और किसी भी भक्त कवि के काव्य में निराश का पुट नहीं
है. ......हिन्दू जाति सदा से आशावादी रही है. ......अत्यधिक प्राकृत
केन्द्रीय कविता की प्रतिक्रिया का अवसान सहज भगवत्प्रेम में हुआ. संतों और
सगुणमार्गी भक्तों ने नये रस बोध को बढ़ावा दिया. .......मैं इसी रास्ते से सोचने
का प्रस्ताव करता हूँ. मतों, आचार्यों, संप्रदायों और दार्शनिक चिंताओं के मानदंड
से लोकचिंता को नहीं मापना चाहता बल्कि लोक चिंता की अपेक्षा में उन्हें देखने की
सिफारिश कर रहा हूँ. ......मैं इस्लाम के महत्त्व को भूल नहीं रहा हूँ, लेकिन जोर
देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम न आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना
स्वरूप वैसा ही होता जैसा आज हैं.
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें