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हिन्दी भाषा का विकास II हिंदी
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हिंदी भाषा की
उत्पत्ति कब हुई, हिंदी
भाषा का सामान्य परिचय, हिंदी
भाषा का विकास, हिंदी
भाषा का जन्म कब हुआ, हिंदी
भाषा का उद्भव और विकास पर निबंध, हिंदी
भाषा की उत्पत्ति और विकास, हिंदी
भाषा की उत्पत्ति कब और कैसे हुई, हिंदी
भाषा की उत्पत्ति पर प्रकाश डालिए :-
साधारणत: 1000 ई. के आसपास से हिन्दी भाषा
में साहित्य-रचना का प्रारंभ माना जाता है. पंडित चन्दधर शर्मा गुलेरी
अपभ्रंश काव्य को भी ‘पुरानी हिन्दी’ कहते हैं. श्री राहुल
सांस्कृत्यायन अपभ्रंश के विपुल साहित्य को हिन्दी के अंतर्गत मानते
हैं और इसी कारण वे हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ 7वीं शताब्दी से
ही मानने के पक्ष में हैं. डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने अपने एक लेख ‘हिन्दी की
बोलियाँ और प्राचीन जनपद’ में हिन्दी की बोलियों के विकास पर रोचक प्रकाश डाला है.
उनके अनुसार प्राचीन मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध सोलह जनपदों – काशी, कोशल,
कुरु, पांचाल, मगध, विदेह, अंग आदि से हिन्दी की वर्तमान बोलियों के क्षेत्र
में अद्भुत समानता प्राप्त होती है. संभव है कि वर्तमान हिन्दी की विभिन्न बोलियों
के क्षेत्र में अद्भुत समानता प्राप्त होती है. संभव है कि वर्तमान हिन्दी की
विभिन्न बोलियों के पूर्वरूप इन विभिन्न जनपदों की भाषा या बोली के रूप में रहे
होंगे. हिन्दी की विभिन्न बोलियों का विकास शौरसेनी, अर्द्धमागधी, मगधी
आदि अपभ्रंशों से हुआ. अपभ्रंश काल के उपरांत 1000 ई. से वर्तमान
काल तक हिन्दी के विकास को तीन कालों में बाँटा जा सकता है :
हिंदी भाषा का वर्गीकरण,
प्राचीन काल (1000 ई. से 1500 ई. तक)
मध्यकाल (1500 ई. से 1800 ई. तक)
आधुनिक काल (1800 ई. के से अब तक)
प्राचीन काल – प्राचीन काल में जब हिन्दी का
प्रारंभ हुआ उस समय उत्तरी भारत के हिन्दू साम्राज्य अपने अंत की प्रतीक्षा कर रहे
थे. दिल्ली, अजमेर, कन्नौज और महोबा के राजकेन्द्र अपने शौर्य के कारण प्रसिद्ध थे
और इन राजदरबारों में साहित्य को भी समादर प्राप्त था. दिल्ली राज में चंदबरदाई
का पृथ्वीराज रासो’, अजमेर में ‘बीसलदेव रासो’, महोबा में जगनिक के
‘आल्हाखंड’ की रचना हुई. कन्नौज में संस्कृत और प्राकृत की रचना में हुई पर
हिन्दी की भी कुछ रचनायें इस राज्यश्रय में हुई.
प्राचीन काल की सामग्री में कुछ पत्र, प्रलेख,
शिलालेख आदि आते हैं जो इस कालसीमा में पड़ते हैं. इस प्रकार की सामग्री बहुत कम
प्राप्त हुई और जो कुछ प्राप्त हुई है उसका भाषिक दृष्टि से समुचित अध्ययन भी नहीं
हो सका है. इस काल में प्रभूत अपभ्रंश साहित्य भी लिखा गया जो भाषा
प्रकृति की दृष्टि से अपभ्रंश की वस्तु ह;ई, पर पचीन हिन्दी के रूप-विकास
के अध्ययन की दृष्टि से हिन्दी के लिए भी उपादेय है. इस काल में हिन्दी की अपनी
रचनाओं के रूप में जो साहित्यिक कृतियाँ प्राप्त होती है उनमें चारण काव्य या रासो
काव्य मुख्य है. पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो आदि की भाषा के प्राचीन
रूपों के संबंध में विवाद है. परवर्ती हस्तलिखित पोथियों में इन रचनाओं की भाषा
सरल और नवीन होती गई है. डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने इन दोनों रचनाओं का प्राचीन
प्रतियों के आधार पर वैज्ञानिक संपादन किया है जिनमें इनको भाषिक प्राचीनता भी कुछ
सुरक्षित मिलती है.
खड़ी बोली के प्राचीन रूप में काव्य-रचना का
प्रारंभ इसी काल में अमरी खुसरों, शर्फुद्दीन एहिया मनेरी, शेख आदि के दोहों के
रूप में हुआ. इसे ‘हिन्दवी’ कहा जाता था. इसी का एक रूप दक्षिण भारत की मुसलमानी
रियासतों में विकसित हुआ जिसे ‘दकनी’ कहते हैं. इसका प्रारंभ 1326 ई. के
बाद होता है. इसे कुछ लोग दक्खिनी हिन्दी अथवा दक्खिनी उर्दू भी
कहते हैं. इसी काल में विद्यापति ने मैथिलि में अपनी पदावलियों की रचना की
तथा मुल्लादाऊद ने अवधी में अपनी प्रेमाख्यानक कृति ‘चंदायन’
को प्रस्तुत किया. इस प्रकार हिन्दी भाषा के विकास के प्राचीन काल में ही इसकी
विभिन्न प्राचीन बोलियों में साहित्य रचना प्रारंभ हो गयी.
मध्यकाल – मध्यकाल में अवधी और ब्रजभाषा
का साहित्यिक भाषाओँ के रूप में प्रचुर विकास हुआ. अवधी को
सर्वप्रथम सूफी कवियों ने अपने काव्य का माध्यम बनाया. ग्रामीण अवधी
के शोब्दों के साथ संस्कृत उद्गम के तद्भव शब्दों और उनके प्राकृतअपभ्रंश
रूपों के प्रयोग से उन्होंने अपनी भाषा का स्वरूप निर्माण किया. इस काल में कुतुबन
की ‘मृगावती’, जायसी की ‘पद्मावत’, मंझन की ‘मधुमालती’,
उसमान की ‘चित्रावली’ आदि सूफी प्रेम-काव्य अवधी में
प्रस्तुत हुए. इस भाषा में गोस्वामी तुलसीदास ने अपना ‘रामचरितमानस’
प्रस्तुत किया जो हिन्दी साहित्य का शिरोमणि ग्रन्थ माना जाता है. तुलसीदास
की अन्य अवधी काव्यकृतियों के अतिरिक्त रामभक्ति शाखा के कुछ अन्य कवियों ने अवधी
को अपनी काव्य-भाषा बनाया.
ब्रजभाषा को वैष्णव भक्त कवियों
ने अपनाकर विशेष महत्व प्रदान किया. बल्लभ संप्रदाय, निम्बार्क
संप्रदाय आदि के वैष्णव कवियों और आचार्यों ने कृष्ण
के जीवन और उनके लीला क्षेत्र की ही भांति ब्रजभूमि की भाषा को भी
महत्व प्रदान किया. ब्रजभाषा में सूरदास का ‘सूरसागर’ अत्यंत
महत्वपूर्ण है. तुलसीदास ने भी अपनी ‘गीतावली’, ‘विनयपत्रिका’
आदि कुछ रचनाओं को ब्रजभाषा में प्रस्तुत किया. इनके अलावा अष्टछाप
के नन्द दास, परमानन्ददास आदि, हित-हरिवंश, चाचा
वृन्दावनदास आदि अनेक कवियों ने ब्रजभाषा में काव्य-रचना करके उसे
समृद्ध किया.
रीतिकाल कवियों की भाषा ब्रजभाषा ही थी. चिंतामणि,
मतिराम, बिहारी, देव, भूषण, भिखारीदास आदि ने
अपनी काव्यकृतियों से ब्रजभाषा को अलंकृत किया. आधुनिक काव्य के क्षेत्र
में ब्रजभाषा का ही अधिकार रहा. इस प्रकार सुदीर्घ काल तक ब्रजभाषा
को हिन्दी प्रदेश की काव्यभाषा होने का गौरव प्राप्त रहा.
ब्रजभाषा के बोल-चाल के रूप से कुछ भिन्न उसका
साहित्यिक रूप विकसित हुआ. कृष्ण भक्त कवियों की ब्रजभाषा और रीतिकालीन कवियों
की ब्रजभाषा में भी अंतर आता गया है.
मध्यकाल में खड़ी बोली में साहित्य रचना नहीं हुई,
प्राय: ऐसा माना जाता रहा है, पर इधर खोजो में इस बात के प्रमाण मिल रहे हैं.
जिनसे यह अनुमान होता है कि खड़ी बोली में भी कुछ न कुछ काव्य-रचना का प्रारंभ हो
गया था. डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने ‘कुतुबशतक’ नामक के रचना का
संपादन किया हैं जिसकी भाषा को वे पुरानी खड़ी बोली और 1500 ई. के आसपास की भाषा
मानते हैं. इसी प्रकार की स्थिति अफजल पानीपपती की रचना ‘विकट कहानी’
की भी हैं. खड़ी बोली का दकनी रूप ही दक्षिण में विकसित होता गया और उसमें ख्वाजाबंदा
नमाज, बुरहानुद्दीन जानम, गवासी, मुकोमी, नसरतो, निजामी, वजही आदि
कवियों की काव्य रचनाएं मिलती हैं. खड़ी बोली उर्दू का विकस भी दकनी से ही हुआ और
उसके आदिकवि वली माने जा सकते हैं. उत्तर भारत में उर्दू लखनऊ और दिल्ली के
केन्द्रों में विकसित हुई और मीर, सौदा, ग़ालिब, जौक, दाग आदि कवियों की रचनाओं से
वह समृद्ध हुई और खड़ी बोली के इन तीनों रूपों- खड़ी बोली हिन्दी, खड़ी बोली उर्दू और
दकनी में भेद बढ़ता ही गया और इन्हें अब साधारणत: एक भाषा कहना और समझना भी कठिन हो
गया है.
आधुनिक काल – उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में ही कलकत्ता
में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना करके अंग्रेजों ने खड़ी बोली गद्द
निर्माण करने के संबंध में प्रयोग प्रारंभ किया. लल्लूलाल ने यहीं से अपना
‘प्रेमसागर’ और सदल मिश्र ने ‘नासिकेतोपाख्यान’ खड़ी बोली
में प्रस्तुत भी किया. खड़ी बोली गद्द को प्रसारित करने में ईसाई मिशनरियों
का योगदान रहा क्योंकि वे अपने धर्म-प्रचार के लिए इसी माध्यम से अपने धर्म-पुस्तिकायें
प्रकाशित करती रहती थीं. प्रारंभ में खड़ी बोली गद्द का जो स्वरूप सामने आया, उसके
ऊपर ब्रजभाषा का प्रर्याप्त प्रभाव लक्षित होता था.
खड़ी बोली गद्द का प्रचार-प्रसार साहित्य के
क्षेत्र में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने तथा उनके अन्य सहयोगी एवं समकालीन
साहित्यकारों ने किया. धर्म के क्षेत्र में आर्य समाज के संस्थापक
स्वामी दयानन्द सरस्वती और सनातन धर्म के प्रचारक श्री श्रद्धाराम फुल्लौरी
आदि ने भी इसे प्रचारित किया. प्रारंभ में खड़ी बोली में नाटक और निबंधों
की रचनायें हुई, फिर उपन्यास, कहानी और अब तो उसमें अनेकानेक नवीन विधाएँ
दृष्टिगत हो रही है. अब खड़ी बोली गद्द में वह लोच और रवानी आ गई है कि किसी भी
विकसित भाषा में समक्ष मानी जा सकती है.
गद्द के बाद भारतेन्दु युग के
समाप्त होते-होते खड़ी बोली धीरे-धीरे काव्य की भी भाषा बन गई. भारतेन्दु
युग के समाप्त होते-होते खड़ी बोली धीरे-धीरे काव्य की भी भाषा बन
गई. भारतेन्दु आदि ने भी अपने नाटकों के गीतों में खड़ी बोली का व्यवहार
प्रारंभ कर दिया था. श्रीधर पाठक ने खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य
प्रस्तुत किया. मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, पन्त,
निराला, दिनकर महादेवी वर्मा, अज्ञेय आदि ने इसीके
माध्यम से अपनी श्रेष्ठ काव्य-रचनाओ को प्रस्तुत किया है.
आज खड़ी बोली का साहित्यिक रूप ही हिन्दी
कहा जाता है. यही हमारी राष्ट्रभाषा है. यही उत्तर प्रदेश, बिहार,
मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा की प्रांतीय भाषा है और भारत की
संपर्क भाषा भी यही रही है.
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