हिन्दी-भाषा और लिपि का ऐतिहासिक हासिक विकास II hindi bhasha aur lipi II hindi bhasha aur lipi ka vikas

हिन्दी-भाषा और लिपि का ऐतिहासिक हासिक विकास II hindi bhasha aur lipi II hindi bhasha aur lipi ka vikas

हिन्दी भाषा के ऐतिहासिक विकास को संतुलित रूप (hindi bhasha ka udbhav vikas evam lipi) में प्रस्तुत करना इस कृति का लक्ष्य है. हिन्दी का (lipi in hindi) विकास वस्तुतः डिंगल, ब्रजी, अवधी और खड़ी बोली हिन्दी के साहित्यिक रूपों का इतिहास है. डिंगल-काव्यों से लेकर आधुनिक हिन्दी नयी कविता तक के भाषारूपों के आधार पर इस विकास की रूप रेखा प्रथम बार विस्तृत रूप में इस कृति में स्पष्ट की गयी है. इस विकासत्मक अध्ययन में भाषाओँ के साहित्यिक रूपों के साथ उनके कथ्यरूपों को भी विवेचन किया गया है और विकास के उत्थानों के लिए कालरूपों का भी विवेचन किया गया है और विकास के उत्थानों के लिए कालपरक नामों के अतिरिक्त भाषापरक (हिंदी भाषा और नागरी लिपि का इतिहास) नाम भी सुझाए गए हैं. आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के वर्गीकरण पर विचार करते समय लेखक ने डॉ. ग्रियर्सन और डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी के वर्गीकरणों सम्यक् परीक्षा करके उनकी सीमाओं का निर्देशक किया है. हिन्दी ध्वनियों का ऐतिहासिक विवेचन उनकी विकासत्मक प्रवृत्तियों के आधार पर किया गया है. इन प्रवृत्तियों का उद्घाटन इस प्रयास की अपनी विशिष्टता है. व्यकरणिक विकास विकास के सन्दर्भ में किया गया हिन्दी प्रत्ययों का वर्गीकरण भी इस कृति की नवीनता है. hindi bhasha ka udbhav aur vikas pdf download

प्रारंभ में संसार की भाषाओँ के परिवेश में हिन्दी के महत्व का आकलन है और अंत में विश्व की लिपियों के सन्दर्भ में देवनागरी लिपि (nagari lipi) के वर्तमान संशोधित रूप का ‘हिन्दी लिपि’ नाम अधिक समीचीन है मूल कृति का प्रणयन उन्नीस सौ चौंसठ ई. में हुआ था. प्रथम संस्करण हिन्दी भाषा, उसकी ध्वनियाँ (sound) dhvani और उसके पदरूपों के विकास का ऐतिहासिक निरूपण था.  वर्तमान संस्करण मूल कृति का संशोधित एवं संवर्धित अद्दतन रूप है. इसमें पाँच नए प्रकरण सम्मिलित किए गए हैं. इनमें से पांचवें में हिन्दी के प्रयोजन मूलक रूपों का प्रयोग रूपों का प्रयोग के आधार पर निरूपण हुआ है. साथ ही हिन्दी भाषा की संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट करते हुए उसके प्रमुख रूपों की विवेचना की गई है. अंत में विभिन्न दृष्टियों से हिन्दी के मानक रूप का निर्धारण है. हिन्दी ध्वनियों का विवेचन व्याकरण और ध्वनि-विज्ञान के सिद्धान्तों के आलोक में पहले किया गया था. प्रस्तुत संस्करण के नवें प्रकरण में स्वनिम सिद्धांत के अनुसार हिन्दी स्वनिमों का निरूपण नया परिवर्धन है. सोलहवां प्रकरण नया है और इसमें हिन्दी पदरूपों का स्वपिम-सिद्धांत  के आधार पर हुआ है. अंतिम नया प्रकरण ऊन्निसवां नागरी के मानकीकरण से संबंद्ध है. इसके अंतर्गत अब तक के उपलब्ध प्रमुख मतों और साक्ष्यों के आधार पर हिन्दी लिपि (नागरी का वर्तमान रूप) के मानक रूप की समस्या पर विचार करते हुए प्रामाणिक निष्कर्ष प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है. 

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