कृष्ण भक्ति शाखा क्या है? और उसकी विशेषताएँ II krishna bhakti shakha II कृष्णकाव्य धारा II krishna kavya dhara
कृष्ण भक्ति शाखा क्या है? और उसकी
विशेषताएँ II krishna bhakti shakha II कृष्णकाव्य धारा II krishna
kavya dhara
कृष्णकाव्य धारा (krishnkavy dhara) - राम की ही भांति भारतीय जीवन और संस्कृति को अनुप्राणित करनेवाले दूसरे (krishna bhakti shakha par tippani likhe) महापुरुष श्रीकृष्ण है. वाल्मीकि (valmiki) ने ‘रामायण’ (ramayan) लिखकर जो कीर्ति प्राप्त की, वहीं ‘महाभारत’ लिखकर व्यास ने. हिन्दी साहित्य में श्रीकृष्ण की भक्तिभावना से अनुप्राणित होकर काव्य की एक बड़ी ही प्रबल और प्रशस्त धारा प्रवाहित हुई. इस धारा का मूल उद्गम जयदेव (jaydev) के गीत-गोविन्द (geet-govind) और विद्दापति (viddapati) के भक्ति पदों से माना जाता है. उसी क्रम में ब्रज की उस (krishna bhakti shakha par tippani likhe) भूमि के अनेक कवियों ने उसी ब्रजभाषा में कृष्ण-लीला (krishn lila) का गायन किया जिस भूमि और भाषा में स्वयं कृष्ण ने लीलाएँ की थीं. वल्लभाचार्य की शिष्य-परंपरा में (कृष्णाश्रयी शाखा के कवि) आठ कवियों ने कृष्ण-लीला का गायन किया जिन्हें ‘अष्टछाप’ (ashtchhap ke kavi) के कवि कहा जाता है. ये सभी वल्लाभाचार्य के पुष्टि मार्ग में (कृष्ण भक्ति शाखा के कवि) दीक्षित थे. इनमें सूरदास, नन्ददास, परमानंददास (parmananddas), चतुर्भुजदास (chaturbhujdas), कुंभनदास (kumbhandas), कृष्णदास (krishndas), क्षीतस्वामी (kshitsvami) और ‘गोविन्दस्वामी (govindsvami) की गणना की जाती है. इनमें सूरदास, नन्ददास (nanddas) और परमानन्ददास (parmananddas) को कवि के रूप में विशेष कीर्ति प्राप्त हुई. इनके अतिरिक्त (कृष्ण भक्ति शाखा पर टिप्पणी लिखिए) भी विभिन्न वैष्णव संप्रदायों से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण कवि इस धारा में हुए. हित हरिवंश, चाचा वृन्दावनदास, स्वामी हरिदास, तानसेन आदि इन्हीं प्रमुख कवियों (pramukh kavi) में हैं. स्वामी हरिदास तानसेन के गुरु थे. और ये दोनों ही भारतीय संगीत-परंपरा bharatiy sangit paranpra (indian music tradition) के महान् संगीतज्ञ थे.
निश्चय ही इन कवियों में सूरदासजी
का स्थान सर्वोपरि है. उनकी एक-मात्र प्रामाणिक रचना ‘सूरसागर’ (sursagar)
है.
इसमें इतनी संगीत की राग-रागिनियाँ समाहित हैं कि आज उनका नामकरण भी संभव
नहीं है. सूर में भावों की वह गहराई है कि मीमासकों ने भाव-गाम्भीर्य की दृष्टि से
इन्हें तुलसीदास (tulsidas) से बड़ा स्थान दिया है. सूरदासजी जन्म से ही
सिलपट अंधे कहे जाते हैं पर अपनी आँधी आँखों से उन्होंने श्रृंगार और वात्सल्य
का कोना-कोना झाँक लिया. उनके काव्य में अलंकारों (alankar), शब्द-शक्तियों
और भाषिक-सर्जना का जो रूप प्राप्त होता है वह अतुलनीय है. सूरदासजी ने कई
प्रबन्ध काव्य नहीं लिखा पर उनकी कीर्ति अक्षय और अमर है.
कृष्ण धारा की प्रवृत्तियाँ : krish dhara ki visheshtaayen, कृष्ण भक्ति काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएं :-
1. वैष्णव भक्ति की कई सांप्रदायिक धाराओं – जैसे वल्लभ संप्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय, राधावल्लभाचार्य (vallbhachary) की परंपरा का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है जिसमें अष्टछाप (ashtchhap ke kavi) के आठ कवि हुए. सूरदास और नन्ददास (nandas) इसी परंपरा के कवि (kavi) हैं.
2. सभी कृष्णभक्त कवियों ने श्रीकृष्ण (shrikrishn) को ब्रह्म का अवतार तथा सोलह कलाओं से पूर्ण अवतार माना है. सभी ने उनकी अपौरुषेय लीलाओं का वर्णन किया.
3. राधा आदि समस्त गोपियाँ उनकी लीला सहचरी हैं. उनके साथ कृष्ण के सहज प्रेम और संयोग का प्रेममय वर्णन भक्तिप्रधान (bhaktipradhan) है. गोपियाँ परकीया प्रेम की प्रतीक है. भक्ति का सर्वोत्तम आदर्श परकीया प्रेम माना गया है.
4. किसी-किसी कृष्णभक्ति संप्रदाय (krishn sanpradaay) में राधाभाव को भक्ति और राधा को भक्ति का अधिष्ठान मानकर ‘श्रीजो’ की महत्ता श्रीकृष्ण से भी अधिक मानी गयी है.
5. इन कवियों की भक्ति मधुरभाव संपन्न प्रेमाभक्ति हैं. साथ ही सख्या; वात्सल्य और दास्य भक्ति (dasy bhakti) के स्वरूप भी मिलते हैं.
6. कवियों ने कृष्ण-जीवन की सभी लीलाओं क विस्तार से वर्णन किया है, पर बाललीला (ballila), रासलीला (raslila) और भ्रमर गीत प्रसंग को विशेष प्रमुखता मिली है.
7. कृष्णभक्ति काव्य (krishnbhakti kavy) में कृष्ण का प्रेमव्यंजक रूप अधिक प्रखर है, उनका लोकरंजन रूप कम ही चित्रित हुआ है.
8. वात्सल्य (vatsaly) और श्रृंगार रसों की बड़ी सशक्त अभिव्यक्ति हुई है. सूरदास (surdas) ने इन दोनों रसों का कोना-कोना झाँक डाला.
9. इनकी रचना मुख्यतः स्फुट पदों में है जो उच्चकोटि के गीतकाव्य कहे जा सकते हैं. उनमें संगीतात्मकता की प्रधानता है. सूरदास के सूरसागर में समस्त राग-रागिनियों का समावेश हुआ है. इनके पद स्फुट होते हुए भी कृष्ण जीवन-कथा पर आश्रित है. अत: ‘सूरसागर’ आदि इस धारा की रचनाओं को प्रबंधाश्रित मुक्तक कहा गया है.
10. इन कवियों की भाषा (bhasha, language) ब्रजभाषा (brajbhasha) है. जैसी प्रांजल और साहित्यिक ब्रजभाषा (sahityik brajbhasha) का प्रयोग सूरदास (surdas) आदि में मिलता है, उससे अनुमान होता है कि ब्रजभाषा में कृष्णकाव्य की परंपरा (krishn kavy ki paranpra) सूर से भी पुरानी है.
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