हिन्दी निबन्ध hindi nibandh II hindi essay II हिंदी साहित्य के निबंधकार II हिंदी निबंध साहित्य का क्रमिक विकास लिखिए


निबन्ध अपने-आपमें पूर्ण एक सर्जनात्मक विधा है. लेख और समीक्षा से निबन्ध इस माने में भिन्न होते हैं कि लेख मेंकिसी भी ज्ञान-विज्ञान के विषय का प्रतिपादन होता है और समीक्षा में किसी कृति, कृतिकार अथवा साहित्य सिद्धांत का सामालोचनात्मक विश्लेषण होता है, पर निबन्ध में किसी भी विषय पर रचनाकार की संवेदना आत्मीय ढंग से अभिव्यक्त होती है. निबन्ध में रचनाकार की भाव छवि और उसके व्यक्तिक संसपर्श का बड़ा महत्व होता है. वह अपने पाठकों से मानो वार्तालाप सा करता होता है. इस अर्थ में निबन्ध एक साहित्यिक विधा के रूप में अपने व्युत्पत्तिमूलक अर्थ में बंधा हुआ या सुगंठित से भिन्न बन्धनहीन या उन्मुक्त का अर्थद्दोतन करता है. निबन्धकार के लिए न तो विषय का बन्धन होता है और न ही उसके विचार-प्रवाह का वह धूलिकण से लेकर चाँद सितारों तक को अपना विषय चुन सकता है. उसके विचार – प्रवाह की गति भी निरंकुश होती है. वह अपने भावधारा में बहता हुआ कितने ही विषयों के कूल-किनारों का स्पर्श कर सकता है पर उसमें उसको वैयक्तिक अभिव्यक्ति एवं संवेदना के वे तत्व आवश्यक हैं, जो उसकी रचना को एक मौलिक सर्जना बना सकें.
निबन्ध की परिभाषाएं अनेक रूपों में प्रस्तुत की गयी हैं, पर अंग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचक और निबन्धकार डॉ. जानसन ने उसकी बड़ी उपयुक्त व्याख्या की है ‘निबन्ध उन्मुक्त मन की एक तरंग है, तो अनियमित और अपरिपक्व विचार श्रृंखला के रूप में व्यक्त होता है.’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार निबन्ध लेखक अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वछंद गति से इधर-उधर छूटी हुई सूत्र-शाखाओं पर विचारता चलता है. वह जिधर चलता है, उधर अपनी सम्पूर्ण मानसिकता सत्ता अर्थात् बुद्धि और भावात्मक हृदय दोनों को साथ लिये रहता है. बाबू गुलाब राय ने निबन्ध की परिभाषा देते हुए लिखा है : ‘निबन्ध उस गद्द-रचना को कहते हैं, जिसमें सीमित आकार के भीतर किसी विषय के वर्णन का प्रतिपादन के विशेष निजीपन, स्वच्छन्दता, सौष्ठव और सजीवता तथा आवश्यक संगति और सजीवता के साथ किया गया हो.’ उपर्युक्त महत्वपूर्ण परिभाषाओं के आलोक में यह देखा जा सकता है कि निबन्ध एक वैयक्तिक अनुभूतिपरक स्वच्छन्द रचना है और वह लेख अथवा समीक्षा से सर्वथा भिन्न वस्तु हैं.

हिंदी निबंध साहित्य के उद्भव एवं विकास का सविस्तार वर्णन कीजिए, निबंध लेखन की परंपरा और विकास :

हिन्दी-निबन्ध का प्रारंभ भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्द के साथ प्रारंभ हुआ. भारतेन्दुजी के समय में उनके द्वारा संपादित ‘हरिश्चन्द्र मैंगजीन’, ‘कवि-वचन सुधा’, प्रतापनारायण मिश्रद्वारा संपादित ‘ब्राह्मण’, बालकृष्ण भट्ट द्वारा द्वारा संपादित ‘हिन्दी प्रदीप’ का प्रकाशन महत्वपूर्ण है. इन पत्रिकाओं में समासमयिक लेखकों के लेख प्रकाशित होते रहे. इस काल के अधिकांश निबन्ध सामाजिक एवं राष्ट्रीय विषयों पर लिखे गये हैं. इन निबंधों में व्यंग-विनोद तथा सजीवतापूर्ण दर्शन होते हैं. इस युग के निबंधकारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट और प्रतापनारायण मिश्र के निबंधों को इस विधा का सच्चा प्रतिनिधि कहा जा सकता है. भट्टजी ने आँख, चन्द्रोय, कवि और चितेरे की डांड़ा-मेड़ी जैसे विषयों पर आत्मपरक शैली में बड़े ही मोहक निबन्धों की रचना की. प्रतापनारायण मिश्र ने भी इसी प्रकार बात जैसे साधारण विषयों पर निबंधों की रचना की. उनके निबन्ध भी भट्ट जी के निबन्धों के समान महत्वपूर्ण हैं. इनमें सर्वत्र लेखक की वैयक्तिकता की पूरी-पूरी छाप है. निबंधों में जिन्दादिली और रवानी के सवर्त्र दर्शन होते हैं.

भारतेन्दु युग के पश्चात्य हिन्दी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी युग का प्रारंभ होता है, पर निबन्ध की दृष्टि से युग को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के आधार पर शुक्ल युग कहा जाय तो अधिक समीचीन होगा. इस युग में निबंधों की अपेक्षा विविध धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेख और साहित्यिक विषयों पर सपेक्षएं अधिक लिखी गई. इसयुग के इस श्रेणी के रचनाकारों में महावीरप्रसाद द्विवेदी, माधवप्रसाद मिश्र, गोविन्दनारायण मिश्र, श्यामसुदंरदास गोपालराम गमहरी, जगनाथप्रसाद चतुर्वेदी और चन्द्रधर शर्मा गुलेरी का नाम लिया जा सकता है. इनमें गुलेरीजी के निबन्ध ‘कछुआ धर्म’, पुरानी पगडंडी’, ‘संगीत’, गोविन्दनारायण मिश्र के ‘आत्माराम के टे टें’, गोपाल राम गहमरी के ऋद्धि सिद्धि’ में भाषा और भावों की चुलबुलाहट के दर्शन होते हैं.

इस युग में जिन निबन्ध लेखकों ने अपने व्यक्तित्व की पूरी छाप छोड़ते हुए सच्चे सर्जक के रूप में निबंधों की सृष्टि की है उनमें आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बालमुकुन्द गुप्त, अध्यापक पूर्णसिंह तथा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का महत्वपूर्ण स्थान है. शुक्ल जी ने निबन्ध ‘चिंतामणि’ भाग 1 में संगृहित हैं. उसके दूसरे भाग में उनकी समीक्षात्मक रचनाएँ हैं. पहले भाग में उत्साह, श्रद्धा और प्रेम, करुणा, घृणा, लोभ आदि मनोवृत्तियों पर शुक्ल जी एक लिखे हुए निबन्ध की समता अंग्रेजी के प्रसिद्ध निबंधकार बेकन के निबंधों से की जाती है. शुक्ल जी ने ऐसे दुरूह मनोवैज्ञानिक विषयों को लेकर भी उनमें इतनी वैयक्तिकता की छाप छोड़ी है और बातचीत की ऐसी शैली का अनुगम किया है कि ये निबन्ध मनोविज्ञान के विषयों के लेखन होकरसही माने में संवेदनात्मक निबन्ध बन सके हैं.

बालमुकुन्द गुप्त इस युग के सशक्त निबन्ध लेखक हैं. इनके ‘शिवशंभु के चिट्ठे’ नामक संग्रह में इनके सभी निबन्ध संकलित हैं. इनमें ‘मेले या ऊँट’ जैसे साधारण से साधारण विषय पर निबंधकार ने बड़ी ही भावमयी सृष्टि की है. बालमुकुन्द गुप्त की अपनी निजी शैली है, जो भट्ट जी और मिश्रजी की शैली की भांति व्यक्तित्वविशिष्ट और छलकती हुई भाषा से मुक्त है. उनकी भाषा बड़ी विनोदपूर्ण एवं सजीव है.

आध्यापक पूर्णसिंह इस युग के दूसरे सशक्त निबंधकार हैं. इनके निबन्धों में बख्शी जी के निबन्धों में कुछ विचारात्मक और कुछ भावात्मक निबन्ध है. उनके निबन्ध संग्रह ‘कुछ’ और ‘पंचतंत्र’है. उपर्युक्त निबंधकारों की भांति बख्शी जी में भी व्यक्तित्व की निजता और शैली की रोचकता के दर्शन होते हैं. उनके निबन्ध बड़े ही घरेलू वातावरण की सृष्टि करते हैं और पतीत होने लगता है कि जैसे निबन्धकार स्वयँ आँखों के सामने बैठा हुआ हमसे बात कर रहा है.

शुक्ल जी के पश्चात् वास्तव में हिन्दी में आलोचना का युग प्रारंभ हो जाता है. आलोचनात्मक लेखों से साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ भरी रहती हैं. और दैनिक साप्ताहिक पत्रों में समसामयिक राजनीति तथा सामाजिक, सांस्कृतिक विषयों पर लेख रहते हैं लगता है, जीवन की भागदौड़ और व्यस्तता में निबन्ध जैसी कोमल भावात्मक विधा के लिए अवकाश ही नहीं रह गया है. इस काल के आलोचनात्मक निबन्ध लेखकों में नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. नगेन्द्र, रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, इन्द्रनाथ मदान, शिवप्रसाद सिंह, शिवदान सिंह चौहान आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं.

वास्तविक निबन्ध लिखनेवालों में इस युग का सबसे महत्वपूर्ण नाम डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी का है जिहोंने अपने ‘अशोक के फूल’ और ‘कुटज’ जैसे संग्रहों में बड़े ही सुन्दर आत्मपरक निबन्ध लिखे हैं. इस युग के अन्य अच्छे निबन्धकारों में डॉ. धर्मवीर भारती, प्रभाकर माचवे, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’, राम वृक्ष बेनीपुरी, महादेवी वर्मा, विद्दानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, विक्की राय, हरिशंकर परसाई, ठाकुरप्रसाद सिंह आदि के नाम महत्वपूर्ण है. इन निबंधकारों ने राज्यश्रित काव्यशैली के निबंधों से लेकर आत्मकथात्मक शैली और व्यंग्यप्रधान शैली के निबन्धों से लेकर आत्मकथात्मक शैली और व्यंग्यप्रधान  शैली के निबंधों से लेकर आत्मकथात्मक शैली का अवलंबन किया है. इनमें कुछ निबन्धकारों के नये निबंधों पर पश्चिम के निबंधकारों की छाया है, पर अधिकाँश ने मौलिक ढंग से अपनी कृतियाँ प्रस्तुत की है, अन्य विधाओं की अपेक्षा नवीन शैली के उत्कृष्ट कोटि की हैं और रचनाकारों को अनन्त संभावनाओं का द्दोतन करती हैं.     

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