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वर्षा ऋतु आ चुकी है. बादल इन दिनों अपना जल
उड़ेलकर पूरी पृथ्वी को हरियाली से सजाने को आतुर हैं. प्रकृति की इस अनूठी
लीला ने हमारे रचनाकारों को हमेशा प्रेरित किया है. शायद ही कोई कवि होगा,
जिसने प्रकृति की इस सहज वृत्ति को महसूस कर उसे अपने शब्दों में व्यक्त न किया
हो. बेशक अपने जीवन अनुभव आलोक में हरेक कवि ने वर्षा को अलग-अलग अंदाज से देखा
है. वर्षा केइसी अनिवार आकर्षण की याद दिलाते हुए यहाँ प्रस्तुत हैं दो मूर्धन्य
कवियों, निराला नागार्जुन हैं आपके लिए प्रस्तुत हैं:-
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
बादल राग कविता II badal rag kavita
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर.
राग अमर!अंबर में भर निज रोर!
झर-झर झर निर्झर-गिरि-सर में,
घर, मरु, तरु-मर्मर, सागर में,
सरित-तड़ित-गति-चकित
पवन में,
मन में, विजन-गहन-कानन में,
आनन-आनन में, रव-घोर-कठोर-
राग अमर! अंबर में भर निज रोर!
अरे वर्ष के हर्ष!
बरस तू बरस-बरस रसधार!
पार ले चल तू मुझको,
बहा दिखा मुझको भी निज
गर्जन-भैरव-संसार!
उथल-पुथल कर हृदय
मचा हलचल-
चल रे चल-
मेरे पागल बादल!
धंसता दलदल,
हंसता है नद खल्-खल्
बहता, कहता कुलकुल
कलकल कलकल
देख-देख नाचता हृदय
बहने को महा विकल-बेकल,
इस मरोर से-इसी शोर से-
सघन घोर गुरु गहन रोर से
मुझे गगन का दिखा सघन वह छोर!
राग अमर! अंबर में भर निज रोर!
अपार कामनाओं के प्राण!
बाधारहित विराट!
ऐ विप्लव के प्लावन!
सावन-घोर गगन के
ऐ सम्राट!
ऐ अटूट पर छुट टूट पड़ने वाले
उन्माद!
विश्व-विभव को लुट-लुट लड़ने
वाले-अपवाद!
श्री बिखेर मुख-फेर कली के निष्ठुर पीड़न!
छिन्न-भिन्न कर पात्र-पुष्प-पादन-वन
उपवन,
वज्र-घोष से ऐ प्रचंड!
आतंक जमाने वाले!
कंपित जंगम-नीड़ विहंगम,
ऐ न व्यथा पाने वाले!
भय के मायामय आँगन पर
गरजे विप्लव के नव जलधर!
सिन्धु के अश्रु!
धारा के खिन्न दिवस के दाह!
मौन उर में चिन्हित कर चाह
छोड़ अपना परिचित संसार-
सुरभित का कारागार,
सुरभित का कारागार,
चले जाते हो सेवा-पथ पर,
तरु के सुमन!
सफल करके
मरीचिमाली का चारू चयन.
स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,
सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर
अपना मुक्त विहार,
छाया में दुःख के अंत:पुर का उद्घाटित द्वार
छोड़ बन्धुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,
जाते हो तुम अपने पथ पर,
स्मृति के गृह में रखकर
अपनी सुधि के सज्जित तार
पूर्ण मनोरथ!आये
तुम आये;
रथ का घर्घर नाद
तुम्हारे आने का सवांद!
ऐ त्रिलोक-जित्!इन्द्र धनुर्धर!
सुरबालाओं के सुख-स्वागत!
विजय! विश्व में नवजीवन भर,
उतरो अपने रथ से भारत!
उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,
कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,
मौन कुटीर.
आज भेंट होगी-
हां, होगी निस्संदेह,
आज सदा-सुख छाया होगा कानन-गेह
आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास.
नागार्जन
बादल राग : badal rag kavita
अमल धवलगिरी के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है.
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है
बादल को घिरते देखा है.
तुंग हिमालय के कन्धों पर
छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,
उनके श्यामल नील सलिल में
समतल देशों से आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते
हंसों को तिरते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.
ऋतु बसन्त का सुप्रभात था
मन्द-मन्द था अनिल बह रहा
बालारुण की मृदु किरणें थीं
अलग-बगल स्वर्णाभ शिखर थे
एक-दूसरे से विरहित हो
अलग-अलग ही रहकर जिनको
सारी रात बितानी होती,
निशा-काल से चिर-अभिशापित
बेबस उस चकवा-चकई का
बन्द हुआ क्रंदन, फिर उनमें
उस महान सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
प्रणय-कलह छिड़ते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.
दुर्गम बर्फानी घाटी में
शत-सहस्त्र फुट की ऊँचाई पर
अलख नाभि से उठने वाले
निज के ही उन्मादक परिमल
के पीछे धावित हो-होकर
तरल-तरुण कस्तूरी मृग को
अपने पर चिढ़ते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.
कहाँ गया धनपति कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं ठिकाना कालिदास के
व्योम-प्रवाही गंगाजल का,
ढूंढा बहुत परन्तु लगा क्या
मेघदूत का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो, कवि-कल्पित था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ चुंबी कैलाश शीर्ष पर,
महामेघ को झंझानिल से
गरज-गरज भिड़ते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.
शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल
मुखरित देवदारु कानन में,
शोणित धवल भोजपत्रों से
छाई हुई कुटी के भीतर
रंग-बिरंगे और सुगन्धित
फूलों से कुन्तल को साजे,
इन्द्रनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रचित मणि-खचित कलामय
पानपात्र द्राक्षासव पूरित
रखे सामने अपने-अपने
लोहित चंदन की त्रिपटी पर,
नरम निदाग बाल कस्तूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मदिरारुण आँखों वाले उन
उन्माद किन्नर-किन्नरियों की
मृदुल मनोहर अँगुलियों को
वंशी पर फिरते देखा है.
बादल को घिरते देखा है.
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