रासो काव्यधारा : चार रासो काव्य के नाम II हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा II raso kavya dhara II prithviraj raso ka kavya roop II prithviraj raso ka rachnakal hai II prithviraj raso ka kavya roop
रासो काव्यधारा : चार रासो काव्य के नाम II हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा II raso kavya dhara II prithviraj raso ka kavya roop II prithviraj raso ka rachnakal hai II prithviraj raso ka kavya roop II
हिन्दी साहित्य के आदिकाल का
नामकरण ‘वीरगाथा काल’ (virgatha kal)करते समय आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल के सामने खोज रिपोर्टों और पुराने संग्रह ग्रथों की सूचनाओं
के आधार पर लगभग एक दर्जन रासो संज्ञक काव्यों का नाम था जिसमें प्रमुख हैं – पृथ्वीराज
रासो (चंदरबरदाई), बीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह),
खुमान रासो (दलपति विजय), हम्मीर रासो
(शारंगधर), विजयपाल रासो (नाल्लसिंह), परमाल रासो
(जगनिक रासो) तथा गैर रासो रचनाएँ – जयचन्द्र प्रकाश
(भट्ट केदार), जयमयंक जस चन्द्रिका (मधुकर).
ये कवि अधिकांशत: चारण हैं और उन्होंने किसी न किसी राजा को अपना चरित नायक बनाकर
काव्य लिखा है. इनमें से सभी रचनाएँ संदिग्ध स्थिति में हैं. कुछ रचनाओं का तो अभी
पूर्णपाठ भी उपलब्ध नहीं है और जिनका पाठ उपलब्ध है, उनके प्रामाणिक पाठ और रचनाकाल
की स्थिति स्पष्ट नहीं है. अपभ्रंश के ‘भरतेश्वर बाहुबलि रास’
और ‘सन्देशरासक’ के साथ इन रचनाओ की स्थिति को देखते हुए यह तो बहुत संभव
लगता है कि रासोकव्य की परंपरा हिन्दी में अवश्य रही होगी और
उपर्युक्त रचनाएँ उसी कड़ी में होंगी. पर जब तक इन रचनाओं का पूर्ण और प्रामाणिक
पाठ सामने न आ जाय तब तक इनके संबंध में कुछ अधिकारपूर्वक कहना संभव नहीं होगा.
इनमें तीन रचनाओं की चर्चा आवश्यक है.
1. पृथ्वीराज रासो – चन्द बरदाई
पृथ्वीराज चौहान का समकालीन और दरबारी कवि कहा जाता है. उसने
पृथ्वीराज के युद्धों और विवाहों का वर्णन अपने ‘रासो’ में किया है.
‘रासो’ को गौ. ही. ओझा, बूलर, मारिसन, मुंशी देवीप्रसाद
आदि इतिहास अप्रामाणिक (अनैतिहासिक) मानते हैं पर मोहनलाल
विष्णुलाल पंड्या और डॉ. श्यामसुन्दरदास इसे
प्रामाणिक मानते हैं. वस्तुतः रासो का जो संस्करण नागारी प्रचारिणी सभा से
प्रकाशित हुआ है वह बहुत वृहद है और उसमें इतने प्रक्षिप्त अंश है कि मूल रासो को
उसमें पता लगाना ही कठिन है. इस दिशा में डॉ. नामवर सिंह ने कुछ कार्य किया
और ‘रासो’ की हस्तलिखित प्रतियों के चार प्रकार के छोटे-बड़े पाठों के रूपों
और उनकी प्रातिलिपि परंपराओं का पता लगाया. उन्होंने तथा डॉ. हजारी प्रसाद
द्विवेदी ने ‘रासो’ का एक संक्षिप्त पाठ प्रकाशित किया जिसके बारे में
यह कहा गया कि यह ‘रासो’ का प्राचीनतम अंश लगता है. आगे चलकर डॉ.
माता-प्रसाद गुप्त ने इसका एक प्रामाणिक पाठ संपादित किया जो साहित्य सदन,
चिरगांव, झाँसी से प्रकाशित हुआ है. इसमें रासो का प्रामाणिक रूप अधिकांशत:
सुरक्षित है. पृथ्वीराज रासो में वीर और श्रृंगार रस हैं तथा
स्थान-स्थान पर इसकी श्रेष्ठ काव्यमय उक्तियाँ मिलती है.
2. बीसलदेव रासो – नरपति नाल्ह
की यह रचना कवि के उल्लेखानुसार सं. 1272 की है पर इसकी प्रतियों के
पाठ की भाषा सोलहवीं शताब्दी के आसपास की है. ना. प्र. सभा से इसका एक संस्करण
सत्यजीवन वर्मा ने प्रकाशित कराया और कालान्तर में माता प्रसाद गुप्त ने हिन्दी
परिषद, प्रयाग विश्वविद्यालय से इसका एक अच्छा पाठ संस्करण
प्रकाशित कराया. डॉ. गुप्त का अनुमान है कि उनके संस्करण के ‘बीसलदेव रास’
की भाषा 14वीं शताब्दी की भाषा है. यह रचना एक बारहमासा प्रधान
विरह-काव्य है. ‘सन्देश रासक’ के रूप और अभिव्यक्ति
से यह बहुत कुछ मिलती-जुलती है. इसमें केवल श्रृंगार रस है, इसमें
वीर रस का स्पर्श भी नहीं है. इसमें श्रृंगार की श्रेष्ठ काव्यमय
अभिव्यंजना हुई है.
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